इतवारी तिहार
हमारी छत्तीसगढ़ की संस्कृति सदा से ही सहिष्णुता का पर्याय रही है, न केवल मनुष्यों के प्रति अपितु अन्य जीवों के प्रति भी। संस्कृति वह फुलवारी है जिसमें विविध परंपराएं, मान्यताएं, लोकरीति, जनश्रुति, लोकव्यवहार एवं समाज के कल्याण के हितार्थ अपनाए गए आदर्श रिवाजों की सुगंध विद्यमान होती है । हमारे छत्तीसगढ़ अंचल मे मनाए जाने वाले विभिन्न आंचलिक एवं स्थानीय त्योहार भी उन्ही मे से एक है । प्रत्येक त्योहार को मनाने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । इन्ही ग्रामीण त्योहारों की श्रृंखला मे एक त्योहार है इतवारी तिहार । इस त्योहार की मान्यता छत्तीसगढ़ अंचल के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों मे भिन्न-भिन्न हो सकती है , इसमे कोई दो राय नही। अब कहा गया है न "कोस कोस मे पानी बदले......" इस इतवारी के संबंध मे मैने जो बातें अपने बुजुर्गों से सुनी है मै उसके संबंध मे कुछ बातें बताने का प्रयास कर रहा हूॅ । इतवारी तिहार का शाब्दिक अर्थ होता है 'इतवार का त्योहार ' या इतवार उत्सव। "इतवारी तिहार" की तरह ही बुधवारी या सोमवारी तिहार भी हो होते हैं। इतवारी तिहार को मनाने के पीछे मान्यताएं अलग अलग स्थानों पर अलग अलग है। कहीं पर महाभारत कालीन पौराणिक मान्यता, पांडवों के अज्ञातवास से संबंधित, तो कहीं फसलों एवं मवेशियों को बीमारी एवं टोने टोटके से बचाने संबंधित। चाहे जो भी कारण हो, उद्देश्य लगभग एक समान होता है, पावस काल में उत्तम फसल एवं उत्तम पशुधन स्वास्थ्य के लिए किए जाने वाला पारंपरिक एवं सामुदायिक उपाय। सप्ताह का कोई भी एक दिन को तिहार के लिए निश्चित किया जा सकता है । यह एक ग्रामीण व्यवस्था है । अधिकांश साप्ताहिक त्योहार सावन या भादो के महीने मे ही या कहीं-कहीं सालभर चलता है (अधिकांशत: भादो के महीने में)। चूँकि सावन-भादो का महीना ग्रामीण कृषिप्रधान समुदाय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि जो इस माह के मिजाज पर ही निर्भर करता है । यह महीना ग्रामीण जनों के लिए अत्यंत व्यस्तता का महीना होता है । किसान अपने परिवार के साथ कृषि कार्यों मे पूरी तरह लीन हो जाता है। चूँकि कृषि एक सामुहिक उद्यम है, इसमे कृषक के साथ ही उनके मवेशियों का भी अहम योगदान होता है । कृषियोग्य पालतू बैल-भैंसा मानो किसान की दो मजबूत भुजाएं है जिनके बल पर वह धरती का सीना चीरकर रोटी उपजाता है । चूंकि ग्रामीण मान्यता के अनुसार प्रत्येक संसाधन देवता का रूप होता है । भूमि ,जल, वायु के साथ पशु संसाधन भी। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यथासंभव उद्यम किये जाते हैं। पूजा पाठ से लेकर धरती फसल एवं पशुधन को विश्राम देना भी पूजन का एक रूप है । शारीरिक श्रम के आधिक्य वाले इस माह मे आराम, किसान के साथ-साथ मवेशियों के लिए भी आवश्यक माना जाता है । चूँकि कृषक समाज मे मवेशी भी परिवार के सदस्य की तरह ही होते हैं। अतः उनके सुख-दुख एवं स्वास्थ्य का भी बराबर ध्यान रखा जाता है । इन्ही सब बातों को ध्यान मे रखते हुए हमारे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण समाज मे सप्ताह का कोई एक दिन आराम के लिए रखा जाता है । वैसे लोग स्वतंत्र होते हैं कि वे जब चाहे आराम करे, जब चाहे काम करे। परंतु हमारे ग्रामीण समाज मे पूरा गाँव एक कुटुंब की तरह होता है । और परिवार या कुटुंब मे व्यवस्था की महती आवश्यकता होती है । गाँव मे व्यवस्था, एकता, समरसता एवं भाईचारे की भावना बनी रहे इसके लिए मतैक्य होना आवश्यक होता है , इसी के चलते यह निर्णय लिया जाता है कि सप्ताह मे एक दिन "तिहार" माना जाए। अगर रविवार का दिन निश्चित किया जाता है तो वह "इतवारी तिहार " एवं बुधवार को "बुधवारी तिहार " कहा जाता है । यहाॅ सर्वप्रथम यह नियम सर्वसम्मति से पारित किया जाता है कि इस दिन कोई भी व्यक्ति खेतीबाड़ी का कोई काम नही करेगा , खेत जाना पूर्णत: वर्जित होगा, कृषि यंत्रों का उपयोग नही करेगा, मवेशियों से कोई भी कार्य नही लिया जाएगा । कहीं-कहीं घास काटकर लाने की छूट भी होती है । किंतु कृषि कार्य पूर्णत: वर्जित रहता है । इस नियम का पालन करना ग्रामीणों को आवश्यक होता है । नियम तोड़ने पर दंड का प्रावधान भी होता है । सामान्यत: दंड का स्वरूप आर्थिक होता है। दंड एवं बदनामी के भय से ग्रामीण नियम तोड़ने से बचता है । यहाॅ यह भी कहना आवश्यक है कि व्यवस्था या नियम का पालन करना ग्रामीण अपना कर्तव्य समझते हैं, यहां भय रूपी कारण गौण हो जाता है । इस तिहार के एक दिन पूर्व गांव के कोटवार को मुनादी करने का आदेश दिया जाता है । गांव का कोटवार संध्या समय गांव की गलियों मे घूमकर "काली इतवारी तिहार मानत जाहू होऽऽऽऽऽऽऽ" की हांक लगाता है । कोटवार की हांक सुनते ही ग्रामीण जन मानो राहत की साँस लेते हैं, इसलिए कि हफ्तेभर से निरंतर कृषि कार्य के चलते घर के अन्य कार्य रूके हुए थे , जिन्हे कर पाने का मौका मिल जाता है । घर की साफ-सफाई , कृषि यंत्रों की मरम्मत, कपड़ों की धुलाई आदि लंबित कार्यों के लिए समय जो मिल जाता है । मवेशियों को भी आराम मिलता है , उन्हे अच्छा चारा आदि खिलाया जाता है । ग्रामीण मवेशियों को लक्ष्मी का रूप मानते हैं, और उन्हे आराम देकर उन्होंने मानो देवी-देवता को आराम दे दिया । इस साप्ताहिक त्योहार को मनाने से ग्रामीण जनों की कई सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों की भी पूर्ति होती है, जैसे उन्हे सगे-संबंधियों के घर सामाजिक आमंत्रण मे शामिल होने का अवसर भी मिल जाता है । चूँकि ग्रामीण जिस गांव मे किसी रिश्तेदार के यहाॅ आमंत्रित किए जाते हैं, कमोबेश वही व्यवस्था भी उस गाँव मे होती है तिहार की । जिससे किसी के भी मन मे यह मलाल भी नही रहता कि आज काम का नुकसान हुआ बल्कि यह मानकर खुश होते हैं कि आज तो सभी का "तिहार " है। और इस व्यवस्था के चलते वे अपनी कृषि कार्य की व्यस्तता के चलते सप्ताह के एक दिन का पारिवारिक और सामाजिक उपयोग करते हैं।
हमारे छत्तीसगढ़ का ग्रामीण अंचल त्योहारों एवं मान्यताओं से भरा हुआ है । ये मान्यताएं कोरी कल्पनाएं नही है बल्कि इसके पीछे के कारणों का अध्ययन करने पर इसके लोकहितकारी इतिहास के दर्शन होते हैं। परंपरागत चली आ रही लोकाचार एवं जनरीति हमारी गौरवशाली छत्तीसगढ़ी संस्कृति का अटूट हिस्सा रही है । मनुष्य का मनुष्य के प्रति दयाभाव के साथ ही साथ पशुओं पर भी दयाभाव न्योछावर करती है, और एक व्यवस्था मे बंधकर नियमों का पालन कराते हुए अनुशासन का पाठ पढ़ाती है।

हमारे छत्तीसगढ़ का ग्रामीण अंचल त्योहारों एवं मान्यताओं से भरा हुआ है । ये मान्यताएं कोरी कल्पनाएं नही है बल्कि इसके पीछे के कारणों का अध्ययन करने पर इसके लोकहितकारी इतिहास के दर्शन होते हैं। परंपरागत चली आ रही लोकाचार एवं जनरीति हमारी गौरवशाली छत्तीसगढ़ी संस्कृति का अटूट हिस्सा रही है । मनुष्य का मनुष्य के प्रति दयाभाव के साथ ही साथ पशुओं पर भी दयाभाव न्योछावर करती है, और एक व्यवस्था मे बंधकर नियमों का पालन कराते हुए अनुशासन का पाठ पढ़ाती है।
- * अरूण कुमार दिल्लीवार *

सुग्घर लेख लिखेव ए तिहार के महत्तम
जवाब देंहटाएंल बड़ा अच्छा ढंग लेप्रस्तुत करेव
निरजीव मूक परानी मनखे जम्मो ल हफ्ता में एक दिन आराम ले कार्य छमता बाड़थे
बहुत बढ़िया लेख है सर जी
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