सुवागीत
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की बगिया मे एक महकती लोकगीत है -सुवागीत। 'लोकगीत' शब्द से ही स्पष्ट हो जाता है कि एक मौखिक या वाचिक गीत शैली जो परंपरागत रूप से मधुर शीतल सरिता की तरह बहती चली आ रही हो। या कहें कि संगीत की वह शैली जिसकी व्युत्पत्ति या रचियता या रचनाकाल के संबंध मे कोई जानकारी लिपिबद्ध न हो । सुवागीत, गीत और नृत्य दोनों विधाओं का एक बेजोड़ उदाहरण है । हालाँकि वर्तमान समय मे कई नवीन गीत सुवागीत की तर्ज पर बनाए जा रहे हैं।
सुवागीत मे प्रत्येक गीत की शुरुआत "तरी नरी नहा नरी, नहना मोर सुवना तरी नरी नहा नरी हो।" से ही होती है एवं आगे भावपक्ष के विविध रंग होते हैं , प्रत्येक गीत मे पृथक -पृथक।
पारंपरिक सुवागीत दीपावली के कुछ दिन पूर्व से शुरू होकर दीपावली की शाम तक समाप्त हो जाती है । गोंड़ (अन्य जातियां भी) जनजाति की महिला प्रधान यह नृत्यगीत आज किसी जाति विशेष की नही अपितु समस्त छत्तीसगढ़ का एक लोकप्रिय लोकगीत बन गया है। इस लोकगीत का मुख्य प्रतिपाद्य विषय शिव-पार्वती जिसे छत्तीसगढ़ी में गौरा-गौरी कहा जाता है की विवाह उत्सव मनाना है। गौरा-गौरी के विभिन्न रूपों एवं कथाओं का वर्णन ये अपनी लोकगीत में करती हैं, तथा राम-सीता की स्तुति भी रामायण के विभिन्न भागों की कथाओं के माध्यम से करती हैं। साथ ही साथ अनादिकाल से चली आ रही पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की मनोदशा को भी लोकगीत के माध्यम से उजागर करती है।
सुवागीत गीत का केंद्र बिंदु सुवा (तोता) है। एक काल्पनिक तोता। सुवागीत मे नारी मन की व्यथा का चित्रण होता है । इसके अनेक रंग है, कई रस है, देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार गीत मे रसों का पदार्पण होता है। एक काल्पनिक सुवा से नारियां अपने मन की व्यथा कहती है ।यहां काल्पनिक तोते का मानवीकरण किया जाता है। उन व्यथित मन:स्थिति मे वह तोता ही एक सच्चा मित्र एक सच्चा हमदर्द होता है। उसे एक ईमानदार संदेश वाहक मानते हुए स्त्रियां संदेश भेजती है, कभी अपने पति को, प्रेमी को, सखी को, मां को, पिता को, भाई को या ईश्वर को। व्याकुल मन की व्यथित दशा हो या पुलकित मन की चंचलता का प्रदर्शन, वह सब कुछ तोते को केंद्र मे रखकर कहती है। "हिन्दी साहित्य का इतिहास" लेख मे कविता और रस की उत्पत्ति के संदर्भ मे कथन है कि "वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान।" ठीक इसी तरह से नारी मन के विविध भाव को लयबद्ध ध्वन्यात्मक रूप से कहती है जो एक गीत का रूप लेती चली जाती है । बिना किसी वाद्ययंत्र के वे केवल लयबद्ध करतल थाप देती हुईं गीत गातीं है जो एक विशुद्ध लोकगीत का रूप प्रस्तुत करती हैं।
"तरी हरी (नरी) नहा न, मोर नहा नरी नहा न
रे सुवा हो
तिरिया जनम झन देय, नारे सुवा हो तिरिया. ..
तिरिया जनम मोरे गऊ के बरोबर, रे सुवा हो
जिहां रे पठोवे तिहां जाय, नारे सुवा हो....."
यहाॅ पर स्त्रियों की दयनीय दशा से व्याकुल नारियाँ अगले जन्म मे स्त्री रूप मे जन्म नही लेना चाहती है । उनके अनुसार स्त्रियाँ उन मूक पशुओं की तरह है जिन्हें बिना रजामंदी के किसी के साथ भी ब्याह कराकर भेज दिया जाता है।
"चलो मन बंसरी बजाय जिहां मोहना रे
राधारानी नाचे ठुमा ठु~म..
रास रचाय जिहां गोप गुवाला रे,मिरदंग बाजे धुमा धु~म"
मोर सुवना मिरदंग बाजे धुमा धुम। तरी हरी नहा नरी..."
कृष्ण प्रेम डूबी गोपी के समान नि: स्वार्थ भाव से तोते को अपनी बात कहती है कि मन कर रहा है कि हम भी गोपियां बनकर वहीं चली जाएं, जहां मोहन राधा के साथ रास लीला कर रहा है । जहां चारों तरफ मुरली मृदंग बज रहे हों और गोपियां कृष्णमद मे नृत्य कर रही हों।(श्रृंगार का सुंदर चित्रण )
"तुलसी के बिरवा ल चौंरा म लगा ले दीदी
मोंगरा लगा ले कुंआ पार मा।
तरी हरी नहा नरी, नहना मोर सुवना, तरी नरी नहा नरी न।"
"मोरो नंदलाला के गेंद गिरे हो जमुना में
तरी हरी नहा नरी......"
(बालकृष्ण की भक्ति वात्सल्य के माध्यम से )
"तरी हरी नहाना नरी नहना मोर सुवना
कही देबे पिया ल संदेश, न रे सुवा हो कहि देबे पिया ल संदेश।"
(सुवा के माध्यम से दूरस्थ प्रियतम को मार्मिक संदेश भेजना)
"दे तो दाई तोर काने के खिनवा
कहां जाबे
सुवा नाचे बर जाहूं।
दे तो देतो दाई तोर पांवे के बिछिया
कहां जाबे
सुवा नाचे बर जाहूं।"
(नवयुवती का अपनी माता से तरुणाई का प्रदर्शन )
ये तो मात्र कुछ उदाहरण हैं।
दीपावली के दिन गांव की गोंड़ महिलाएं जिनकी संख्या आठ दस हो सकती है एक टोली बनाकर घर-घर सुवागीत नाचने गाने निकल पड़ती हैं। उनमे से किसी एक महिला के सिर पर बांस की एक टोकरी रहती है जिसमें अधिकांशत: धान भरा होता है। जिसमे मिट्टी के बने चार पांच तोते होते हैं जो बांस की पतली सींखो से लगे होते हैं और जो उस टोकरी मे भरे धान मे खोंसे गए होते हैं। साथ फूलों एवं अन्य सजावट सामग्री से सजी होती है। घर के दरवाजे पर पहुंचे ही भीतर आंगन मे आते हुए वे सुवागीत गाने लगती है। आंगन के बीचोंबीच टोकरी को रखकर अधिकांश महिलाएं टोकरी के चारों ओर गोल घेरा बनाकर खड़ी हो जाती हैं। एक या दो महिलाएं घेरे के भीतर या बाहर रहकर "तरी नरी नहा नरी, नहना मोर सुवना, तरी हरी नहा नरी न..." से गीत शुरू करती हैं जिसे बाकी घेरे मे खड़ी महिलाएं दुहराती हुई ताली की थाप देती हुई घूमती हुई नृत्य शुरू कर देती हैं। इस दौरान वे समय को ध्यान मे रखते हुए एक गीत पूर्ण करती हैं। गीत समाप्त होने के साथ ही नृत्य करती महिलाएं भी एक सीध मे खड़े होकर, गीत के ही माध्यम से उस घर के सदस्यों के लिए दुआएं मांगती है, मंगल कामना करती हैं।
" जइसे कि मइया मोर लिए दिए हो, नारे सुवना
कि जइसे के दइबो असीस, रे सुवना के जइसे के
देइबो असीस।
बेटवन बेटवा तोर घरभर हो, न रे सुवना के डिहरी
लिखे हे परदेस, रे सुवना के डिहरी लिखे हे परदेस
गइयन गइया तोर कोठा भर हो, न रे सुवना
के बड़दा लिखे हे छै मास, रे सुवना के बड़दा लिखे है
छै मास।
खाओ कमाओ... रे सुवना के जियो माता लाखो बरीस
रे सुवना हो, जियो माता लाखों बरीस।
जियत रहिबोन त अऊ आबो हो, न रे सुवना
के मारे जुलुम होई जाय, रे सुवना के मारे जुलुम होई जाय।"
( वे मंगल कामना करते हुए कहतीं हैं कि, जिस मन से आपने हमे दक्षिणा दी हैं, हम भी उसी नेक मन से आपको आशीष देतीं हैं आपका घर पुत्र रत्नों से भरा रहे। गायों से गोशाला भरी रहे। आप लोग कमाओ खाओ, और माता आप लाखों वर्षों तक जीवित रहें। साथ ही वादा करती हैं कि अगर अगले वर्ष तक हम जीवित रहतीं हैं तो हम फिर आपके आंगन मे आएंगे, किन्तु अगर मर गईं तो जान लेना माता कि हम अपना वादा निभाने मे अक्षम रहीं।) यही अंतिम पंक्तियां मार्मिकता का रूप प्रस्तुत करती हैं।
इस मंगल कामना के पश्चात घर की मालकिन के द्वारा 'सेर चांऊर' दिया जाता है । सेर चाँउर के रूप मे एक सूपा मे चांवल, दाल, नमक, कुछ कच्ची सब्जियां (आलू) पैसे (यथासामर्थ्य ) आदि सप्रेम दान स्वरूप भेंट की जाती है । फिर सुवादल वहां से निकलकर आगे की घरों की ओर चल पड़ती हैं।
*अरूण कुमार दिल्लीवार *
शिक्षक
शास. उच्च. माध्य. शाला कल्लूबंजारी
वि. खं . छुरिया राजनांदगांव
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